
बिहार में विधानसभा चुनावों की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। अक्टूबर-नवंबर में चुनावी संग्राम होना है और एनडीए बनाम महागठबंधन की रेखाएं खिंच चुकी हैं। लेकिन इस बार मुकाबला सिर्फ दो ध्रुवों के बीच नहीं, बल्कि तीसरे और चौथे मोर्चे की मौजूदगी ने सियासी समीकरणों को पेचीदा बना दिया है।बिहार की राजनीति में इस बार कई नई और पुरानी ताक़तें खुद को “इम्पैक्ट प्लेयर” साबित करने की होड़ में हैं। इन दलों में सबसे चर्चित नाम है प्रशांत किशोर का, जो रणनीतिकार से नेता बने हैं। उनकी पार्टी जन सुराज बिहार के युवाओं, शिक्षा व्यवस्था और रोजगार जैसे मुद्दों को लेकर लगातार जनता के बीच सक्रिय है।प्रशांत किशोर वही शख्स हैं जिन्होंने 2014 में बीजेपी को और 2015 में महागठबंधन को सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी। अब वह अपने संगठन के ज़रिए युवाओं और शिक्षित वर्ग को जोड़कर तीसरी ताकत बनाना चाहते हैं। बीपीएससी पेपर लीक और पलायन जैसे मुद्दों पर उनकी जनता से सीधी बातचीत ने उन्हें युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाया है।वहीं, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (AAP) ने भी बिहार में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है। स्कूल, अस्पताल और बिजली-पानी जैसे शहरी विकास मॉडल को बिहार में लागू करने की मंशा ज़ाहिर की गई है। हालांकि संगठनात्मक मज़बूती और ग्राउंड लेवल पर अभी पार्टी को संघर्ष करना पड़ रहा है।उधर, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम वोटबैंक को साधने की पूरी कोशिश में जुटी है। 2020 के विधानसभा चुनाव में सीमांचल की कुछ सीटों पर एआईएमआईएम ने अच्छा प्रदर्शन किया था और अब पार्टी उसी आधार पर खुद को एक “किंगमेकर” की भूमिका में देख रही है।हालांकि, सवाल यही है कि क्या ये तीनों ताकतें – पीके की जन सुराज, केजरीवाल की AAP और ओवैसी की AIMIM – सिर्फ वोट कटवा साबित होंगी या वाकई चुनावी नतीजों को प्रभावित करने वाले इम्पैक्ट प्लेयर?